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राजा राममोहन राय – भारत के महान (Great) समाज सुधारक (2024)

राजा राममोहन राय

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राजा राममोहन राय : परिचय

राजा राममोहन राय, भारतीय समाज के पुनर्जागरण के प्रेरणास्त्रोत और एक अनूठे समाज सुधारक थे। उन्होंने भारतीय समाज में ज्ञान के प्रबोधन और उदार समाज सुधार के नवीनीकरण के युग की शुरुआत की। राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधानगर में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। राजा राम मोहन राय की प्रारंभिक शिक्षा फारसी और अरबी भाषाओं में पटना में हुई, जहाँ उन्होंने कुरान, सूफी रहस्यवादी कवियों की रचनाओं तथा प्लेटो एवं अरस्तू की पुस्तकों के अरबी संस्करण का अध्ययन किया । बनारस में उन्होंने संस्कृत, वेद और उपनिषदों का अध्ययन किया। 1803 से 1814 तक, वह ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए वुडफोर्ड और डिग्बी के अधीन निजी दीवान के रूप में काम किया। 1814 में, उन्होंने नौकरी छोड़ी और धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों में अपना जीवन समर्पित करने के लिए कोलकाता की ओर प्रस्थान किया। नवंबर 1830 में, वे सती प्रथा संबंधी अधिनियम पर विरोध करने के उद्देश्य से इंग्लैंड गए। राम मोहन राय, दिल्ली के मुगल सम्राट अकबर की तरह, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार के पक्षपाती थे I वह पेंशन से संबंधित शिकायतों हेतु इंग्लैंड गए तभी अकबर II द्वारा उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी गई। इस महापुरुष का निधन ब्रिस्टल के समीप स्टाप्लेटन में 27 सितंबर 1833 को हुआ।

राजा राममोहन राय की 250वीं जयंती

आज़ादी का अमृत महोत्सव के तत्वावधान में संस्कृति मंत्रालय 22 मई 2022 से 22 मई 2023 तक श्री राजा राम मोहन राय की 250वीं जयंती मनाया गया । उद्घाटन समारोह संस्कृति मंत्री द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा का अनावरण करके किया गया। साथ ही अन्य कार्यक्रम राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन, साल्ट लेक, कोलकाता और साइंस सिटी मैटोरियम, कोलकाता में आयोजित किए गए है। बच्चों के लिए एक सेमिनार तथा प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम भी आयोजित किया जाएगा। श्री राजा राममोहन राय के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर एक मल्टीमीडिया प्रस्तुति भी प्रस्तुत की जाएगी।
विचारधारा : राम मोहन राय को पश्चिमी आधुनिक विचारों से अत्यधिक प्रभावित होने का श्रेय जाता है, जो बुद्धिवाद और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समर्थन करते थे। उनकी तात्कालिक समस्या उनके मूल निवास स्थान, बंगाल, के धार्मिक और सामाजिक पतन पर आधारित थी। उनका मानना था कि धार्मिक रूढ़िवादी कुरीतिया सामाजिक जीवन को क्षति पहुँचाती है और समाज की स्थिति में सुधार करने के बजाय लोगों को और परेशान करती है। राजा राम मोहन राय का मानना था कि सामाजिक और राजनीतिक आधुनिकीकरण धार्मिक सुधार की परिधि में ही शामिल हैं। राम मोहन राय ने यह माना कि हर पापी को अपने अपराधों के लिए प्रायश्चित करना चाहिए, और यह प्रायश्चित आत्म-शुद्धि और पश्चाताप के माध्यम से होना चाहिए, न कि आडंबर और अनुष्ठानों के माध्यम से। वह सभी मनुष्यों की सामाजिक समानता में विश्वास करते थे और इस तरह से जाति व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने कहा कि एकेश्वरवाद ही वेदांत का मूल संदेश है। एकेश्वरवाद को वे हिंदू धर्म के बहुदेववाद और ईसाई धर्मवाद के प्रति एक सुधारात्मक कदम मानते थे। राम मोहन राय की धारणा थी कि एकेश्वरवाद ने मानवता के लिए एक सार्वभौमिक मॉडल का समर्थन किया है। उनका यह मानना था कि जब तक महिलाओं को शिक्षा, बाल विवाह, सती प्रथा जैसे अमानवीय रूपों से मुक्त नहीं किया जाता, तब तक हिंदू समाज प्रगति नहीं कर सकता। उन्होंने सती प्रथा को हर मानवीय और सामाजिक भावना के उल्लंघन के रूप में तथा एक जाति के नैतिक पतन के लक्षण के रूप में चित्रित किया

योगदानः

धार्मिक सुधार : राजा राममोहन राय का पहला प्रकाशन तुहफात- उल-मुवाहिदीन (देवताओं का उपहार) वर्ष 1803 में सामने आया था जिसमें हिंदुओं के तर्कहीन धार्मिक विश्वासों और भ्रष्ट प्रथाओं को उजागर किया गया था। जिसके बाद ब्रिटिश लोगों ने इस प्रकाशन का बड़-चढ़ के समर्थन किया, क्योंकि जो वो चाहते थे वही अब भारतीय स्वयं कर रहे थे अपने धार्मिक विश्वासों को नकारना जिससे अंग्रेज़ी हुकूमत फूली न समा रही थी। फिर इन्होंने वेदांत सार के संक्षिप्तीकरण का अनुवाद 1816 में किया साथ ही हिन्दू धर्म की रक्षा 1820 में पुस्तक लिखी उसके बाद जब इन्होंने द प्रिंसेप्टस ऑफ जीसस – द गाइड टू पीस एण्ड हैप्पीनेस 1820 पुस्तक लिखी तब पूरे अंग्रेज़ी शासन में हड़कंप मच गया । उनके पहले प्रकाशन में, जब उन्होंने हिंदू धार्मिक विश्वासों पर तर्कसंगत प्रहार किया, तो वह उन भ्रष्ट प्रथाओं के खिलाफ थे जो भारतीय समाज को पिछड़ावाद की दिशा में ले जा रहे थे और उन प्रथाओं को उजागर किया।। लेकिन अंग्रेज़ी प्रशासन जो अपने धार्मिक विश्वासों, संस्कृति की प्रगति और विकास की दुहाई देते फिरते थे। राजा राममोहन राय ने उनके दकियानूसी सोच और विचारों को अनर्थक साबित किया, किस प्रकार से बाइबिल में चमत्कार, अंधविश्वासों और अनावश्यक बातों को तर्कसंगत रुप से उत्तर दिया। उन्होंने ईसाई धर्म के कर्मकांड की आलोचना की और ईसा मसीह को ईश्वर के अवतार के रूप में खारिज कर दिया । और भारतीय जनमानस को अपने धर्म की रक्षा के कई सूत्र भी बताए। राजा राममोहन राय एक धार्मिक सुधारक तथा सत्य के अन्वेषक थे। सभी धर्मों के अध्ययन से वे इस परिणाम पर पंहुचे कि सभी धर्मों में अद्वैतवाद सम्बधी सिद्धांतों का प्रचलन है । अद्वैतवादी उन्हें अद्वैतवाती मानते थे तथा हिन्दू उन्हें वेदान्ती स्वीकार करते थे । वे सब धर्मों की मौलिक सत्यता तथा एकता में विश्वास करते थे। इस कारण मोनियर विलियम ने उन्हें प्रथम तुलनात्मक धर्मशास्त्र के अन्वेषक कहा है।

समाज सुधार : राजा राम मोहन राय ने सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के उपकरण के रूप में सुधारवादी धार्मिक संघों की कल्पना की। उन्होंने 1815 में आत्मीय सभा, 1821 में कलकत्ता यूनिटेरियन एसोसिएशन, और 1828 में ब्रह्म सभा (जो बाद में ब्रह्म समाज बन गया) की स्थापना की।। उन्होंने जाति व्यवस्था, छुआछूत, अंधविश्वास और नशीली दवाओं के इस्तेमाल के विरुद्ध अभियान चलाया। वह महिलाओं की स्वतंत्रता और विशेष रूप से सती एवं विधवा पुनर्विवाह के उन्मूलन पर अपने अग्रणी विचार के लिये जाने जाते थे। उन्होंने बाल विवाह, महिलाओं की अशिक्षा और विधवाओं की अपमानजनक स्थिति का विरोध किया तथा महिलाओं के लिये विरासत की मांग की। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के साधन के रूप में सुधारवादी धार्मिक संघों की कल्पना की। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए अभियान चलाया, जिसमें विधवाओं के पुनर्विवाह का अधिकार और महिलाओं के लिए संपत्ति रखने का अधिकार शामिल था। उन्होंने बहुविवाह जैसी प्रथा का विरोध किया। उन्होंने बाल विवाह, बहुविवाह, महिलाओं की निरक्षरता और विधवाओं की निम्न स्थिति पर प्रहार किया । उन्होंने तर्कवाद और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को महत्व दिया। उन्होंने उस समय हिंदू समाज की कथित बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी ।

सती प्रथा हटाने को आन्दोलन : राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी – सती प्रथा का निवारण। उन्होंने ही अपने अथक प्रयासों से सरकार द्वारा इस कुप्रथा को ग़ैर-क़ानूनी दंण्डनीय घोषित करवाया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को मिटाने के लिए प्रयत्न किया । उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया । यह आन्दोलन समाचार पत्रों तथा मंच दोनों माध्यमों से चला। इसका विरोध इतना अधिक था कि एक अवसर पर तो उनका जीवन ही खतरे में था । वे अपने शत्रुओं के हमले से कभी नहीं घबराये । उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके। जब कट्टर लोगों ने इंग्लैंड में ‘प्रिवी कॉउन्सिल’ में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, तब उन्होंने भी अपने प्रगतिशील मित्रों और साथी कार्यकर्ताओं की ओर से ब्रिटिश संसद के सम्मुख अपना विरोधी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। उन्हें प्रसन्नता हुई जब ‘प्रिवी कॉउन्सिल’ ने ‘सती प्रथा’ के समर्थकों के प्रार्थना पत्र को अस्वीकृत कर दिया । सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम पंक्ति में आ गये।

शैक्षिक सुधार : राजा राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे तथा उन्होंने गणित एवं विज्ञान पर अनेक लेख तथा पुस्तकें लिखीं। साथ ही वह अपने वेदों, उनिषदों आदि को भी शिक्षा में उतना ही महत्व देते थे, वह भारतीयों के समक्ष अपने धर्मशास्त्रों में शिक्षा की महत्ता उसकी उपयोगिता को समझने के लिए धर्मशास्त्रों से कई उदहारण प्रस्तुत किया करते थे । 1805 में राजा राममोहन राय बंगाल में अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में सम्मलित हुए और 1814 तक वे इसी कार्य में लगे रहे। नौकरी से अवकाश प्राप्त करके वे कलकत्ता में स्थायी रूप से रहने लगे और उन्होंने पूर्ण रूप से अपने को जनता की सेवा में लगाया। 1831 में एक विशेष कार्य के सम्बंध में दिल्ली के मुग़ल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड गये । उन्हें मुग़ल सम्राट की ओर से ‘राजा’ की उपाधि दी गयी। अपने सब कार्यों में राजा राममोहन राय को स्वदेश प्रेम, अशिक्षितों और निर्धनों के लिए अत्यधिक सहानुभूति की भावना थी । अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के सम्भव होने के कारण उन्होंने अपने देशवासियों में राजनीतिक जागृति की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए जनमत को शिक्षित किया । उन्होंने सम्भव उपायों से लोगों की नैतिक उन्नति के यथासम्भव प्रयत्न किए। वे अपने समय के सबसे बड़े प्राच्य भाषों के ज्ञाताओं में से एक थे । उनका विश्वास था कि भारत की प्रगति केवल उदार शिक्षा के द्वारा होगी, जिसमें भारतीय पाश्चात्य मिश्रित विद्या तथा ज्ञान की सभी शाखाओं की शिक्षण व्यवस्था हो । उन्होंने ऐसे लोगों का पूर्ण समर्थन किया, जिन्होंने अंग्रेज़ी भाषा तथा पश्चिमी विज्ञान के अध्ययन का भारत में आरम्भ किया और वे अपने प्रयत्नों में सफल भी हुए। उन्होंने वर्ष 1817 में हिंदू कॉलेज खोलने के लिये डेविड हेयर के प्रयासों का समर्थन किया यह संस्था उन दिनों की सर्वाधिक आधुनिक संस्था थी, जबकि राय के अंग्रेज़ी स्कूल में मैकेनिक्स और वोल्टेयर के दर्शन को पढ़ाया जाता था। हिन्दू कॉलेज की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। हिन्दू कॉलेज की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने 1825 में वेदांत कॉलेज की स्थापना की, जहाँ भारतीय शिक्षा के साथ-साथ पश्चिमी सामाजिक और भौतिक विज्ञान के भी पाठ्यक्रम पाठन  होता था।

राजा राम मोहन राय द्वारा साहित्यिक कार्य तुहफ़त – उल – – मुवाहिदीन (1804), वेदांत गाथा (1815) वेदांत सार के संक्षिप्तीकरण का अनुवाद (1816 ), केनोपनिषद ( 1816 ), ईशोपनिषद ( 1816 ), कठोपनिषद (1817), मुंडक उपनिषद (1819), हिंदू धर्म की रक्षा (1820), द प्रिंसेप्टस ऑफ जीसस – द गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस (1820 ), बंगाली व्याकरण (1826), द यूनिवर्सल रिलीजन (1829), भारतीय दर्शन का इतिहास (1829), गौड़ीय व्याकरण (1833 ) इत्यादि महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किया। देश और समाज को नई दिशा और दृष्टिकोण देने का कार्य किया ।

आर्थिक और प्रशासनिक सुधार : 1831 से 1834 तक अपने इंग्लैंड प्रवास काल में राममोहन जी ने ब्रिटिश भारत की प्राशासनिक पद्धति में सुधार के लिए आन्दोलन किया। ब्रिटिश संसद के द्वारा भारतीय मामलों पर परामर्श लिए जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। हाउस ऑफ कॉमन्स की प्रवर समिति के समक्ष अपना साक्ष्य देते हुए उन्होंने भारतीय प्राशासन की प्राय: सभी शाखाओं के सम्बंध में अपने सुझाव दिया। राममोहन जी के राजनीतिक विचार बेकन, ह्यूम, बैंथम, ब्लैकस्टोन और मॉन्टेस्क्यू जैसे यूरोपीय दार्शनिकों से प्रभावित थे। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्वक निबटारे के सम्बंध में कांग्रेस के माध्यम से सुझाव प्रस्तुत किया, जिसमें सम्बंधित देशों की संसदों से सदस्य लिए जाने का निश्चय हुआ । कराधान सुधार: राम मोहन राय ने बंगाली ज़मींदारों की दमनकारी प्रथाओं की निंदा की और न्यूनतम लगान तय करने की मांग की। उन्होंने कर – मुक्त भूमि व करों के उन्मूलन की भी मांग की। उन्होंने विदेशों में भारतीय सामानों पर निर्यात शुल्क में कमी और ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को समाप्त करने का आह्वान किया । प्रशासनिक सुधार: उन्होंने बेहतर सेवाओं के भारतीयकरण और न्यायपालिका से कार्यपालिका को अलग करने की मांग की। उन्होंने भारतीयों एवं यूरोपीय लोगों के बीच समानता की मांग की।


प्रेस की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष:
जब 1819 में लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा प्रेस सेंसरशिप में ढील दी गई, तो राम मोहन राय ने तीन पत्रिकाओं का प्रकाशन किया – ब्राह्मणवादी पत्रिका (1821); बंगाली साप्ताहिक – संवाद कौमुदी (1821) और फारसी साप्ताहिक – मिरात-उल-अकबर। राजा राममोहन राय ने समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए भी कड़ा संघर्ष किया था। उन्होंने स्वयं एक बंगाली पत्रिका ‘सम्वाद – कौमुदी’ आरम्भ की और उसका सम्पादन भी किया । यह पत्रिका भारतीयों द्वारा सम्पादित -सबसे पुरानी पत्रिकाओं में से थी। उन्होंने 1833 ई. के समाचारपत्र नियमों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आंदोलन चलाया। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय को एक स्मृति पत्र दिया, जिसमें उन्होंने समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लाभों पर अपने विचार प्रकट किए थे। समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलन के माध्यम से ही 1835 ई. में समाचार पत्रों की आज़ादी का मार्ग बना। लेखन और अन्य गतिविधियों के माध्यम से उन्होंने भारत में स्वतंत्र प्रेस के लिये आंदोलन का समर्थन किया ।

विद्वानों की राय में राजा राममोहन राय

विद्वानों की राय में, राजा राममोहन राय को नए युग का अग्रदूत ठीक ही कहा जाता है।

  • मोनियर विलियम के अनुसार, राजा महोदय संभवत: तुलनात्मक धर्मशास्त्र के प्रथम सच्चे अन्वेषक थे।
  • सील (Seal) के अनुसार, राजा विश्व मानवता के विचार के संदेशवाहक थे। वे मानवतावादी, पवित्र तथा सरल थे। वे विश्व इतिहास में विश्व मानवता के दिग्दर्शन करते थे।
  • मिस कोलेट के कथनानुसार, इतिहास में राममोहन राय ऐसे जीवित पुल के समान हैं, जिस पर भारत अपने अपरिमित भूतकाल से अपने अपरिमित भविष्य की ओर चलता है। वे एक ऐसे वृत खंड थे, जो प्राचीन जातिवाद तथा अर्वाचीन मानवता, अंधविश्वास तथा विज्ञान, अनियन्त्रित सत्ता तथा प्रजातंत्र, स्थिर रिवाज तथा अनुदार प्रगति तथा पवित्र, यद्यपि अस्पष्ट आस्तिकता के बीच की खाई को ढके हुए थे।
  • नन्दलाल चटर्जी के अनुसार, राजा राममोहन राय अविनष्ट भूतकाल और उदित होते हुए भविष्य, स्थिर अनुदारता तथा क्रांतिकारी सुधार, अंध परम्परागत पृथकता तथा प्रगतिशील एकता के मध्य मानव सम्बंध स्थापित करने वाले थे। संक्षेप में वे प्रतिक्रिया तथा प्रगति के मध्य बिंदु थे।
  • रविंद्रनाथ टैगोर के अनुसार, राममोहन राय ने भारत में आधुनिक से युग का सूत्रपात किया। उन्हें भारतीय पुनर्जागरण का पिता तथा भारतीय राष्ट्रवाद का प्रवर्तक भी कहा जाता है। उनके धार्मिक और सामाजिक सब विचारों के पीछे अपने देशवासियों की राजनीतिक उन्नति करने की भावना मौजूद रहती थी।

निष्कर्ष : राजा राम मोहन राय अपने समय के उन कुछ लोगों में एक `थे जिन्होंने आधुनिक युग के महत्त्व को महसूस किया। वह जानते थे कि मानव सभ्यता का आदर्श स्वतंत्रता से अलगाव में नहीं है, बल्कि राष्ट्रों के आपसी सहयोग के साथ-साथ व्यक्तियों की अंतर-निर्भरता और भाईचारे में है। उन्होंने अपने जीवन काल में भारतीय संस्कृति, सभ्यता और आधुनिकता के आपसी तालमेल और जुड़ाव को महत्व दिया । प्रखर राष्ट्रवादी और बुद्धिमता का परिचय देते हुए उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त रूप से बदलाव लाकर राष्ट्र को प्रगति और तकनीकी रूप से अग्रसर करने का कार्य किया ।


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