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पद्म श्री सम्मानित सीता देवी (SITA DEVI) की जीवनी

सीता देवी (SITA) का परिचय

बिहार के मिथिलांचल के जन-मानस में दो-दो ‘सीता’ हैं।एक हैं जगत् जननी ‘सीता’, जिनका उद्भव हजारों वर्ष पहले हुआ था और दूसरी हैं – बीसवीं शताब्दी की ‘सीता’, जिन्हें मिथिला पेंटिंग को पुन: प्रकाश में लाने का श्रेय प्राप्त है। दोनों के व्यक्तित्व में अद्भुत समानताएँ हैं। दोनों मिथिला की हैं। दोनों का संबंध मिथिला पेंटिंग से है। दोनों जीवन भर दुःख झेलती रहीं; लेकिन अपने त्याग, तपस्या और समर्पण के कारण आज भी लोगों के कंठ पर हैं। मिथिला पेंटिंग की उत्पत्ति और प्राचीनता रामायण काल की मानी जाती है। मान्यता है कि सीता स्वयं कुशल चित्रकार थीं और अपने महल की दीवारों पर मिथिला के पौराणिक बिंबों को उकेरती थीं। इसलिए, जगत् जननी सीता को ‘मिथिला चित्रों की जननी’ भी कहा जाता है। वर्तमान समय की सीता भी तमाम विषम परिस्थितियों के बीच पूरी तन्मयता से सीता – जन्म, राम-सीता मिलन, सीता-स्वयंवर और सीता की अग्निपरीक्षा जैसे विषयों का चित्रण करती रहीं; साथ ही जानकी (सीता) से संबंधित ‘समदाउन’ गीतों का भी गायन करती रहीं । मिथिलांचल में समदाउन गीत बड़ा ही लोकप्रिय है, जिसमें सीता के ससुराल जाने के समय उनके परिजनों की व्यथा की बड़ी कारुणिक प्रस्तुति है । उन गीतों के गायन के दौरान वे कहा भी करती थीं कि जब राजा जनक की बेटी होकर भी सीता ने इतने दुःख सहे तो मैं तो एक साधारण स्त्री हूँ। पौराणिक कथाओं एवं धार्मिक मान्यताओं पर आधारित अपने चित्रों की विषय-वस्तु, प्रभावशाली एवं ओजस्वी रंग और समर्थ रेखाओं के चलते वे अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुकी थीं।

सीता देवी (SITA ) का जन्म और वैवाहिक जीवन

सीता देवी का जन्म बिहार के सुपौल जिले के वसहा गाँव के एक संभ्रांत परिवार में मई 1914 में हुआ था । उनके पिता का नाम चुमन झा एवं माता का नाम सोन देवी था। गाँव में ही उन्होंने प्राइमरी स्कूल की शिक्षा प्राप्त की और अपनी माँ व नानी से भित्ति चित्र बनाना सीखा । तत्कालीन समाज में व्याप्त प्रथा के अनुसार 12 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह मधुबनी जिले के जितवारपुर गाँव के शोभाकांत झा के साथ हो गया।

सीता देवी का ससुराली परिवार बेहद विपन्न था, जबकि उनके पिता ने उस परिवार को संपन्न समझकर उनकी शादी की थी। भोजन तक का संकट था। पिता और बाद में उनके बड़े भाई चावल की कुछ बोरियाँ भेज देते। फिर भी खाने-पीने का संकट बना रहा। अंततः सीता देवी ने अपने गहने भी बेच दिए।परिवार ऋण से घिर गया । कुपोषण और कमजोर स्वास्थ्य के चलते सीता देवी की दो बेटियाँ और बड़ा बेटा गुजर गए । बीच का बेटा रामदेव बच गया। फिर तीसरी बेटी भी बचपन की देहरी पर ही गुजर गई । पारिवारिक आपदाओं से घबराकर सीता देवी ने अपने को दुर्गा की शरण में डाल दिया। दुर्गा-भजन का निरंतर पाठ और सीता से संबंधित ‘समदाउन’ गीत हमेशा गाती रहीं, जिनका उन्हें संबल मिला। बाद के तीन पुत्र बच गए। फिर भी आर्थिक विपन्नता ऐसी रही कि अंत में जितवारपुर छोड़कर सहरसा स्थित बड़े भाई के यहाँ अपनी संतानों को लेकर चली गईं। भाई संपन्न थे। वहीं बड़े बेटे रामदेव ने स्कूली शिक्षा पूरी की। दूसरे पुत्र सूर्यदेव की आठवीं तक पढ़ाई वहीं हुई। तीसरे पुत्र महादेव की प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं हुई। बाद में अपने तीनों बेटों के साथ वे जितवारपुर लौट गईं।

भित्ति चित्र के लिए चयन और प्रसिद्धि

सन् 1964 में मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा था। फसलें झुलस गई थीं और लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए थे। उस अकाल से निपटने के लिए भारत सरकार के हैंडीक्राफ्ट बोर्ड ने डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी को इस क्षेत्र के ग्राम्य जीवन में विद्यमान भित्ति चित्र को व्यावसायिक आयाम देने के लिए मधुबनी भेजा था। उस समय तक ब्राह्मण एवं कायस्थ जाति की महिलाओं में ही भित्ति चित्रों को बनाने का प्रचलन था । उनके चित्रांकन मुख्यतः पौराणिक आख्यानों से जुड़े होते थे। कुलकर्णी जमीन एवं दीवारों पर कोहबर या अरिपन के रूप में प्राचीनकाल से चली आ रही भित्ति – चित्र की परंपरा को कागज पर उकेरने के लिए स्थानीय महिलाओं को प्रेरित करने लगे । लेकिन यह बड़ा ही कठिन एवं चुनौतीपूर्ण कार्य था। तत्कालीन समाज में परदा प्रथा थी । ब्राह्मण एवं कायस्थ जाति की महिलाएँ पर-पुरुषों के सामने आने में झिझकती थीं। जमीन एवं दीवारों पर चित्रण उनके लिए धार्मिक कार्य था और उसके लिए धन-अर्जन उनकी नजर में ‘पाप’ था। कुलकर्णी बहुत परेशान थे। किसी से उन्हें जानकारी मिली कि जितवारपुर की महापात्र परिवार की सीता देवी भित्ति चित्रण में दक्ष हैं और गरीबी में अपना जीवन-यापन कर रही हैं। कुलकर्णी ने उनसे संपर्क साधा। शुरुआत में सीता देवी भी झिझकीं, लेकिन कुलकर्णी के बहुत समझाने पर तैयार हो गईं। माँ – नानी से मिथिला चित्रकला का दान मिला था। सीता देवी के साथ – साथ जितवारपुर की जगदंबा देवी एवं कुछ अन्य महिलाएँ भी इस कार्य में आगे आईं। इस तरह मिथिला पेंटिंग, जो पूर्व में भित्ति – चित्र थी, उसका व्यावसायिक रूपांतरण कागज पर प्रारंभ हुआ । कुलकर्णी के अनुरोध पर सीता देवी ने 30 x 22′ के कागज पर कुछ चित्र बनाए । सीता देवी समेत अन्य कलाकारों द्वारा बनाए गए चित्रों को नई दिल्ली के जनपथ पर प्रदर्शित किया गया। विशेषज्ञों समेत आम लोगों ने उन्हें देखा और खूब पसंद किया।

दिल्ली स्थित चाणक्य आर्ट गैलरी के संस्थापक मेहँदीरत्ता उन चित्रों, विशेषकर सीता देवी के चित्रों से, प्रभावित होकर कुलकर्णी के साथ जितवारपुर आए। उन्होंने 5′ x 5′, 5 ‘ × 10 ‘ के कैनवास पेपर सीता देवी को दिया। उनका लक्ष्य था— सीता देवी के चित्रों की एकल प्रदर्शनी आयोजित करना। सीता देवी को कहा, “ कोई भी फीगर और डिजाइन, जो चाहे चित्रित कर दें।” सीता देवी ने अपने दो पुत्रों, बड़े रामदेव और दूसरे सूर्यदेव, का भी उसमें सहयोग लिया और सूक्ष्म रेखाओं की  सहायता से चित्रों को लाल, बैंगनी, काले, पीले, नीले और नारंगी रंगों से भर दिया। यहीं से सीता देवी के उत्थान और कीर्ति का दरवाजा खुल गया । उनके द्वारा बनाए गए चित्रों की माँग दिनोदिन बढ़ती गई।

दिल्ली आमंत्रण, प्रसिद्धि और पुरस्कार

उसके बेटे सूर्यदेव की प्रतिभा भी निखर चुकी थी — माँ अनुशासित रूप से पारंगत थीं ही। वे दोनों चित्र लेकर दिल्ली गए। चाणक्य आर्ट गैलरी में सीता देवी ने अपनी चित्रावलियाँ प्रदर्शित कीं। मीडिया को बुलाया गया। फोटो के साथ सीता देवी अखबारों में छा गईं। उनके बनाए सभी चित्र बिक गए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी इसकी सूचना मिली । उन्होंने उन्हें चाय-नाश्ते पर बुलाया । सीता देवी पहली बार कार में बैठी थीं। इंदिरा गांधी ने अनुरोध किया, “मेरे सामने चित्र बनाएँ।” उनका परिवार भी था। सीता देवी जमीन पर बैठ गईं। एक दियासलाई की काठी के ब्रश से उन्होंने दुर्गा का भव्य चित्र उकेर दिया। सीता देवी ने कहा, “मैं शक्तिशाली दुर्गा को महाशक्तिशाली दुर्गा का चित्र अर्पित कर रही हूँ।” यहीं से उनकी ख्याति और अवदान का चमत्कार रंग भरने लगा। भारत की सर्वोपरि धनी महिला गिरा साराभाई ने अपने नए मकान की दीवारों पर माटी के रंगों से चित्र उकेरने के लिए उन्हें अहमदाबाद बुलाया, फिर दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित अकबर होटल के मधुबन कॉफी शॉप की दीवारों पर चित्र बनाए, जो काफी लोकप्रिय हुए। सन् 1972 में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित ग्राम झाँकी में उनके द्वारा बनाए गए भित्ति चित्र को काफी सराहना मिली। नई दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के मुख्य द्वार के अंदर की दीवारों पर उनके द्वारा बनाई पेंटिंग भी सुर्खियों में रही। इस दौरान उन्होंने देश के प्रमुख शहरों, जैसे— अहमदाबाद, बंबई, कलकत्ता एवं दिल्ली सहित विभिन्न शहरों में आयोजित प्रदर्शनियों में भाग लिया और अपनी कला का प्रदर्शन किया। उनके चित्रों की ख्याति देश से लेकर विदेश तक फैलने लगी। मधुबनी पेंटिंग में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए बिहार सरकार ने सन् 1969, 1971 और 1974 में उन्हें श्रेष्ठ शिल्पी, दक्ष शिल्पी और राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। सन् 1975 में भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

            अर्धनारीश्वर, सीता-हरण, सीता – स्वयंवर, महाकाली तथा कृष्ण – कथा जैसे उनके चित्र उस समय इतने लोकप्रिय हुए उन्हें सन् 1976 में अमेरिका, जर्मनी और जापान से आमंत्रण मिला। अमेरिका और जापान सहित विश्व के दस देशों में उनके चित्रों की प्रदर्शनी हुई और वहाँ उनकी कला कुशलता को दाद दी गई। उसी वर्ष जर्मनी के बर्लिन शहर में भी उनके चित्रों को बहुत अधिक पसंद किया गया। वाराणसी में प्रथम श्रेणी के रेल डिब्बे में लकड़ी के खाली पैनल पर चित्रण के लिए कहा गया। इस कार्य में उन्होंने पहली बार ब्रश और तैल रंग आधारित चित्रों का प्रयोग किया। उनके चित्रों के मुँहमाँगे दाम मिलने लगे। वर्ष 1981 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ के सम्मान से सम्मानित किया। जर्मनी की एरिका स्मिथ, फ्रांस के इव्स विको, अमेरिका के रेमंड ओएंस एवं डेविड फेमस और जापान के टोकियो हासेगावा समेत कई ख्याति प्राप्त कला समीक्षकों ने उनके चित्रों पर शोध किया और वृत्त चित्र भी बनाए। उनकी प्रसिद्धि की गूँज देश – विदेश में फैल गई। आमदनी बढ़ी।आर्थिक सहायता मिलते ही उन्होंने गाँव में जमीन खरीदी, पक्का मकान बनाया। यह उनके अनुसार, सब दुर्गा माँ का प्रताप था ।

वह पुनः अमेरिका गईं। ‘ भरनी शैली’ की इस कला-नेत्री ने अपना आधार सूक्ष्म, ललित रेखाओं के सीमांकन में चटख रंगों को रखा। कृष्ण, राधा, दूसरे देव – देवियों के उनके चित्र शिखर पर पहुँच गए। उन्हें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। अपने उत्थान के साथ उन्होंने गाँव और समाज का भी खयाल रखा, उसका आर्थिक सशक्तीकरण किया, अपने अविकसित गाँव को आत्मनिर्भर बनाया, गाँव की संपर्क – सड़कों एवं गलियों को पक्का कराया, गाँव में हाई स्कूल बनवाया – प्राइमरी की जगह । सन् 1971 से ज्यादातर दिल्ली में ही रहने लगी थीं। जब बड़े राजनीतिज्ञों से मिलतीं, अपने गाँव को नहीं भूलतीं। कुछ-न- कुछ गाँव के लिए माँग लेतीं। सीता देवी के चलते ही जितवारपुर आज अतुलनीय गाँव है ।

मिथिला पेंटिंग में सीता देवी ने अपनी एक विशिष्ट शैली विकसित की थी। पहले वे कूँची से चित्रों का खाका बनाती थीं, इसके बाद खाके के बीच में बाँस की सींक में बँधे कपड़े के फाटे से अपेक्षित रंगों को यथास्थान भरती थीं। यही उनकी सृजन-प्रक्रिया थी। उनके चित्रों के बॉर्डर में कोई डिजाइन नहीं होता था, बल्कि उसे वे एक खास रंग से भरती थीं। इससे उनके चित्रों में एक उभार पैदा होता था और उसकी स्पष्टता निखरकर सामने आ जाती थी। उनके चित्रों में रंगों का संयोजन अद्भुत होता था। उन चित्रों में नारंगी एवं पीले रंग की बहुलता के बीच में बैंगनी रंग का प्रयोग एक करिश्माई प्रभाव उत्पन्न करता था। वे लाल, गुलाबी और नीले रंग का प्रयोग बहुत कम करती थीं; लेकिन इन दोनों रंगों की न्यूनता उनके चित्रों के सौंदर्य में एक विशालता और व्यापकता प्रदान करती थी। मधुबनी पेंटिंग में कुछ प्राकृतिक रंगों को मिलाकर कुछ नए रंगों को बनाने का प्रयोग उन्होंने पहली बार किया। ये प्रयोग अपनी सघनता में स्वच्छ और मूल रंगों से अधिक प्रभावशाली होते थे। मधुबनी पेंटिंग में रंगों का इतना सुंदर और करिश्माई उपस्थापन शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिलता है । यह सीता देवी की अनोखी शैली थी, जिसके कारण मधुबनी पेंटिंग के अन्य समकालीन कलाकारों की तुलना में उनकी एक अलग पहचान बन गई थी।

कहते हैं कि कलाकार के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब कहीं-न- कहीं उसके चित्रों में दिख ही जाता है । सीता देवी स्वयं काफी लंबी थीं और उनके चित्रों की मानवीय आकृतियाँ भी लंबी होती थीं। उनके लंबे-लंबे हाथ और पैर होते थे। बड़ी-बड़ी आँखें, नुकीली नाक, पतली कमर सर्वत्र एक-सी दृष्टिगत होती थी । सीता देवी के स्त्री पात्रों के चित्रों के केश विन्यास और वस्त्राभूषण के अलंकरण में भी एक विशेष प्रकार का सम्मोहन होता था। रूपांकन और अलंकरण ऐसा कि देखनेवाले, अनुभव करनेवाले का उनसे सहज तादात्म्य हो जाए। उसका अनुकरण मधुबनी पेंटिंग के कलाकार आज भी करते हैं। फलस्वरूप उनके केश-विन्यास की शैली आज एक स्थापित शैली बन गई है।

सुप्रसिद्ध लेखक और विचारक मुल्कराज आनंद ने अपनी पुस्तक ‘मधुबनी पेंटिंग’ में उनके बारे में लिखा है—“मैंने उन्हें एक सहज व सरल कलाकार के रूप में पाया। उनके निपुण हाथ चित्रों की रेखाओं पर घूमते हैं। वह बड़ी आसानी से वृत्त के किनारों को बनाती हैं, फिर उनको बड़ी सावधानी के साथ अलंकृत कर देती हैं या फिर वे सूर्य बनाती हैं – बड़ी-बड़ी आँखोंवाला और उसके ललाट पर लाल रंग का पवित्र टीका लगा देती हैं और फिर उसके आसपास वे एक छोटी दुनिया का निर्माण करती हैं, जिनमें कमल होते हैं, विभिन्न फूल होते हैं और नाचते मोर होते हैं । कोई भी उनकी गतिशील उँगलियों से चित्रों के बनने की सहज प्रक्रिया को देख सकता है। उनकी आँखें एकाग्रचित्त होती हैं । उनके चित्रों में एक मौलिक लयात्मकता देखने को मिलती है, जो उनके शरीर और आत्मा की अभिव्यक्ति होती है। यह उनकी मिथिला चित्रकला (मधुबनी पेंटिंग) की एक खास शैली है। “

सीता देवी के समय में धार्मिक कट्टरता चरम पर थी। समाज में ऊँच-नीच और छुआछूत का बोलबाला था। छोटी जाति के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। सीता देवी स्वयं माँ जानकी और दुर्गा की अनन्य भक्त थीं। ज्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं थीं, फिर भी मानवतावादी गुणों से भरपूर थीं । उनके इन गुणों की झलक मधुबनी पेंटिंग के नामचीन कलाकार शिवन पासवान के एक संस्मरण से मिलती है । घटना 1980 के दशक की है। शिवन पासवान सुबह – सुबह सीता देवी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे थे। उसी समय सीता देवी की बहू चाय लेकर आईं और शिवन पासवान को देखकर बोलीं, “आप थोड़ी दूर खिसक जाइए, माँ जी को चाय देनी है ।” सीता देवी को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने अपनी बहू को फटकार लगाते हुए कहा, ” तुम्हारे मुख से ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं । शिवन पासवान भी एक कलाकार हैं और कलाकारों की एक ही जाति होती है। जाओ और इनके लिए भी चाय बनाकर लाओ।” ऐसी उदारमना स्वभाव की थीं सीता देवी ।

सीता देवी ने अपने जीवनकाल में जितवारपुर एवं आसपास के गाँवों के सैकड़ों लोगों को मधुबनी पेंटिंग में दक्ष कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया। जो कोई भी उनके पास प्रशिक्षण के लिए पहुँचा, खाली हाथ नहीं लौटा – पूर्णता पाई । कोई शुल्क नहीं- सब मुफ्त। सीता देवी के गढ़े और तराशे हुए ढेर सारे कलाकार आज भी हमारे बीच हैं। उनका कहना है कि उँगलियों से कूँची को पकड़ने की सीता देवी की एक खास मुद्रा थी। वे अँगूठे व तर्जनी से कूँची को पकड़ती थीं और मध्यमा को कागज या कैनवास पर टिकाए रहती थीं। शेष दो अनामिका और कनिष्ठा को वह कागज की सतह से ऊपर रखती थीं। यह उनकी कला का आविष्कृत अनुशासन था। वे अपने छात्रों को भी उसी ढंग से कूँची पकड़ना सिखाती थीं । गलती करनेवालों को झिड़की देते हुए कहती थीं, “ऐसे नहीं, ऐसे पकड़ो। “

सीता देवी का समय वह समय था, जिसमें महिलाओं की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं होती थी । उन्हें घर से निकलने पर पाबंदी थी। यहाँ तक कि अपने माता-पिता द्वारा दिए गए मूल नाम को वे मायके में ही छोड़ आती थीं । ससुराल में उनका संबोधन फलाने की बहू, पत्नी या माँ के रूप में होता था । लेकिन सीता देवी ने अपने कला-कर्म से सदियों से चली आ रही उस परंपरा को बदल दिया। वे क्षेत्र से लेकर देश-विदेश में अपने मूल नाम से जानी जाने लगीं, जो तत्कालीन समाज की बहुत बड़ी घटना थी। आज की तिथि में जितवारपुर के घर-घर में मधुबनी पेंटिंग के कलाकार हैं, जिनमें महिलाओं की प्रमुखता है । इसी रूप में यह गाँव सौंदर्य और रोजगार दोनों को धरती पर उतारनेवाला काम कर रहा है । इस महिला सशक्तीकरण का श्रेय सीता देवी को है।

मृत्यु

लगभग पाँच दशकों तक मधुबनी पेंटिंग में सक्रिय रहने के बाद 12 दिसंबर, 2005 को 91 वर्ष की उम्र में सीता देवी का निधन हो गया। मधुबनी पेंटिंग का वह रौशन सितारा सदा के लिए डूब गया; लेकिन उनके नाम का सितारा आज भी चमक रहा है और भविष्य में भी निरंतर चमकता रहेगा। उनके बनाए हुए चित्र लंदन के विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूजियम, लॉस एंजिल्स का काउंटी म्यूजियम ऑफ आर्ट, द फिलाडेल्फिया म्यूजियम ऑफ आर्ट, पेरिस का मसी द क्यू ब्रानली और जापान के मिथिला म्यूजियम सहित भारत के कई संग्रहालयों में सुशोभित हैं। वे अपने इन चित्रों में सदैव रंग-रूप में प्रतिष्ठित रहेंगी और उनके प्रभावक चित्र – रश्मि से कलाकारों की समसामयिक एवं परवर्ती पीढ़ियाँ अनुप्रेरित होती रहेंगी । इसी अमरता का नाम ‘सीता देवी’ है।


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