स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय
स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में 12 जनवरी 1863 ई. में हुआ था । इनके बचपन का वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ था तथा पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था । जो बंगाल के बहुत ही ख्याति प्राप्त वकील थे। इनकी माता श्रीमती भुनेश्वरी देवी धर्म, परायण, साध्वी, बुद्धिमती एवं साहसी महीला थीं। इनके बाबा श्री दुर्गाचरण दत्त बहुत ही सज्जन, नेक और अच्छे इंसान थे, जो फारसी, संस्कृत एवं कानून के बहुत बड़े ज्ञाता थे। स्वामी जी पर अपने माता-पिता एवं दादा का बहुत प्रभाव था। कहा जाता है कि प्रारंभ से ही महापुरुषों के लक्षण दिखने लगते हैं। विवेकानंद की आराधना और पूजा का यह तरीका उनकी आत्मा की गहराई में डूबने के समान था। उनका ध्यान इतनी प्रभावशाली था कि वे अपने आसपास की भौतिकता को पूरी तरह से भूल जाते थे। इसे देखकर लगता है कि उनकी आराधना में उन्हें अद्वितीय संबंध का अनुभव होता था, जो उन्हें सांसारिक मामलों से ऊपर ले जाता था।
इनके पिता की बड़ी लालसा थी कि उनका बेटा वकील बने और उनकी परंपरा को आगे बढाये । उनके पिता सहृदय गृहस्थ और एक सामाजिक प्राणी थे और अपने पुत्र को भी वह वकील बनाना चाहते थे,; लेकिन शायद परमात्मा को यह मंजूर नहीं था ।
नरेंद्र बहुत ही तेज और प्रखर बुद्धि के थे, वह किसी भी चीज का बहुत जल्दी याद कर लेते थे। नियमित विद्यालय जाने से उसके सहपाठियों का असर उनपर भी होने लगा था। इसलिए इनके शिक्षण का कार्य घर पर ही हुआ, इनके पिता ने उनकी शिक्षा को अपने घर पर ही संचालित किया। इतनी छोटी आयु में ही उन्होंने व्याकरण का अध्ययन किया और रामायण और महाभारत के कई लंबे प्रसंगों को अपनी स्मृति में संग्रहित कर लिया। इससे प्रकट होता है कि उनका शिक्षा-प्रणाली मूल्यांकन और पाठ्यक्रम में अत्यधिक प्रभावशाली था।। सात वर्ष की आयु में ही कॉलेज में भरती हो गये । इन्होंने पढने के साथ-साथखेल-कूद, व्यायाम, संगीत, नाटक आदि विषयों में रूचि ली और सभी में उनकी विशेष दक्षता समय-समय पर प्रकट होती रही। सोलह वर्ष की आयु में मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की और प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया । बाद में एसेम्बली इंस्ट्रीक्शन में पढने गये । अध्ययन में उनकी प्रतिभा सदैवसर्वोच्च रही। उनकी इस प्रतिभा को देखकर ड्ब्लू डब्लू हेस्टे ने एक बार कहा कि…
“I have travelled far and wide but I have never come across a lad of his talent and possibilities. He is bound to make his mark in life”
प्राचार्य विलियम हेस्टी की प्रेरणा से रामकृष्ण परंहस के साथ 1881 में दक्षिणेश्वर मंदिर कलकता में उनकी भेंट हुई, जो इनकी जीवनधारा को बदलने में अहम योगदान दिया। रामकृष्ण परंहस उन्हें देखते ही पहचान लिया और कहा “मैं जानता हूँ आप स्वयं नारायण के अवतार है जिन्होंने मानवता का उद्धार करने के लिए इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और यही से उन दोनों में गुरु शिष्य का संबंध विकसित हुआ। नरेंद्र ने पहला सबाल किया, क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है ? रामकृष्ण ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया ।
“God can be realized one can see and talk to him as I am doing with you But who cares to do so.”
कुछ समय बाद नरेंद्र के पिता का देहांत हो गया और गृह संचालन की पूरी जिम्मेदारी उनपर आ गयी, लेकिन वे घबराये नहीं । नरेंद्र की ईश्वर के प्रति आस्था बढती गयी। एक दिन उनको प्रतीत हुआ कि ईश्वर का भी अस्तित्व है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही कठिनाईयों का साहस के साथ सामना किया जा सकता है । लगातार रामकृष्ण के सानिध्य में धीरे-धीरे गृहस्थ से सन्यांसी बना दिया। सन 1886 में रामकृष्ण के मृत्यु के पश्चात नरेंद्र ने उनकी शिक्षा का प्रचार-प्रसार अपने जीवन का मूल मंत्र बनाया । नरेंद्र आरंभ से जिज्ञासु थे वे हर बात में सत्य का अनुसंधान करने लगते थे। अपने छात्र जीवन से ही उनकी रूचि शास्त्रों, साधु संतों और धर्म आलोचना आदि में अधिक थी। अपने इसी स्वभाव के कारण विश्व उनके लिए एक जिज्ञासा का विषय बनता चला गया और वे निरंतर जीवन पर्यन्त सत्य की खोज में लगे रहे। जीवन के इस सोच के विकसित होने के कारण उन्होंने यह संकल्प व्यक्त किया कि हमें जीवन की प्राप्ति तभी हो पाती है जबपूरी लगन, निष्ठा और समर्पण के साथ किसी के लक्ष्य के लिए लगते हैं। उन्होंने यह तय कर लिया था कि जीवन की मुक्ति सन्यास में है इसलिए एक जगह उन्होंने कहा है कि “मैं समझता हूँ कि सन्यास ही मानव जीवन का सर्वोच्य आदर्श होना चाहिए। नित्य परिवर्तनशील अनित्य संसार के पीछे सुख की कामना के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उस अपरिवर्तनशील ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ को पाने के लिए प्राणप्रण से कोशिश करना ही सौ गुणा श्रेष्ठ है।” (विवेकानंद साहित्य खण्ड -7, पृष्ठ – 234)
नरेंद्र के स्वभाव को देखते हुए रामकृष्ण ने एक बार कहा था कि “जिस दिन नरेंद्र का जीवन दुःखों, काँटों और विपतियों से सन्निकट होगा उसके चरित्र का अभिमान विचलित होकर अनंत करूणा में परिवर्तित हो जाएगा। उसके अहम जो दृढ़ विश्वास है वह तमाम निराश आत्माओं में उस विश्वास और आस्था को उत्पन्न करने का साधन बनेगा, जिसे उन्होंने थोड़े समय में खो दिया है । शक्तिशाली आत्मनियंत्रण के उपर आधारित उनके व्यवहार की जो स्वच्छंदता है वो दूसरे की आँख में आत्मा की सच्ची स्वतंत्रता बन कर चमकेगी।” (समकालीन भारतीय दर्शन, डॉ. श्रीमती लक्ष्मी सकसेना,पृष्ठ-90)
1886 ई. में श्री रामकृष्ण परम्हंस का मृत्यु हुआ । मृत्यु के पूर्व उन्होंने नरेंद्र का स्पर्श करते हुए अपना सर्वस्व उतराधिकार उन्हें दिया और कहा कि बेटा आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर बन गया । स्पर्श के साथ ही नरेंद्र को समाधि के आनंद की अनुभूति हुई। अब नरेंद्र नरेंद्र न रह कर स्वामी विवेकानंद हो गये और उनके जीवन में हमें ज्ञान, भक्ति, कर्म और वैराग्य का अपूर्व सम्न्वय मिलने लगा। 1888 ई. के दौरान, स्वामी विवेकानंद ने अपने कमंडल को हाथ में लिए और संन्यासी के वेश में भारत के मुख्य स्थानों पर यात्रा की। इस यात्रा भ्रमण से विवेकानंन्द के अनुभव संसार में कई अनुभूतियाँ जाग्रत हुए । उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि का परिचय पाया। इस परिचय से स्वामी विवेकानंद को भारत के बारे में जो ज्ञान प्राप्त हुआ वो साधारण न था उसे उन्हें भारत की जनता के निर्धता, अशिक्षा तथा कुसंस्कारों आदि का पता लगा ।
हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा में स्वामी जी ने देखा की धर्म, देश भारत वर्ष दुभिक्ष, महामारी, दुःख, रोग, शोक से जर्जरित है। धनिक लोग गरीबों का चूसकर बिलास की पिपासा को तृप्त कर रहे हैं। आहार से भुखे –प्यासे लोग भूमंडल पर युग-युगांतर की निराशा लिए अन्न के लिए तरस रहें है। शिक्षा के अभाव के कारण पुरोहित वर्ग धर्म से भय्भीत कर रहे हैं। धर्म के बारे में अज्ञान होने के कारण भारतीयों के हृदय में न आशा है, न बल है, इन सबकों देखकर स्वामी का हृदय द्रवीभूत हो गया । और उन्होंने कन्याकुमारी के पास शीलासन पर उपर्युक्त बुराई को दूर करने का संकल्प लिया ।
स्वामी विवेकानंद की महानता का एक और पहलू यह था कि उन्होंने युग-युग की संस्कृति को अपनी पीठ पर समेटा। उनके द्वारा बनाई गई यह सम्पति हमें हमारी धरोहर का मूल्य समझने में मदद करती है। 31मई, 1893 को, उन्होंने अपने गुरु की इच्छा को पूरा करते हुए भारत से अमेरिका की ओर यात्रा की। उन्होंने अपनी यात्रा में लंका, सिंगापुर, हांगकांग, कैंटन, और नागासाकी को छूते हुए जुलाई मध्य तक शिकागो पहुंचा। इस साहसिक परिवर्तन के माध्यम से, उन्होंने अपने आदर्शों को विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया और अमेरिकी लोगों को भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के प्रति जागरूक किया। । इस यात्रा में स्वामी जी ने एशिया की सांस्कृतिक एकता और उसमें भारतीय अनुदान की अनुपम झाँकी प्रस्तुत की, चीन में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की अमूल्य पाण्डुलिपियाँ मिली, जिनका उन्होंने अध्ययन किया। जापान में उन्हें पवित्र सूत्रों का श्लोक मिला। इन सब वस्तुओं को देखकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि एशिया के आध्यात्मिक एकता भारत का कितना महान योगदान रहा है। अमेरिका पहुँचकर अमेरिका की शक्ति, धन, सृजनात्मक प्रतिभा एवं समृद्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हो उठे। जिस उद्देश्य से वे अमेरिका गये, उस सभा में नियम के अनुसार उन्हें प्रवेश नही मिल रहा था , उस समय प्रोफेसर जे. ए. राइट ने उन्हें धर्म संसद में प्रवेश दिलाने मे मदद की के जिसके कारण उन्हे धर्म सभा मे प्रवेश मिल सका । 11 सितंबर, सोमवार, 1893 को कोलनगर हॉल में धर्म संवाद का प्रारंभ हुआ।। भारत से आये प्रतिनिधियों में ‘ब्रह्म समाज’ के प्रताप चंद्र मजुमदार और नागरकर गाँधी ‘जैन समाज’ के वीर चंद, थियोसोफिकल के ओर से एनी बेसेंट एवं चक्रवर्ती तथा स्वामी विवेकानंद आदि हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे ।
विवेकानंद ने अपने उद्घाटन भाषण के दौरान अमेरिकावासियों को ‘प्रिय भाई और बहनों’ कहा। उनके इस भाषण को सुनकर सभा दो मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा सभा गूँजता रहा । । स्वामी जी ने अपना भाषण हिंदू धर्म से आरंभ किया । उन्होंने हिंदू धर्म को सभी धर्मों का जनक बताया; क्योंकि इसी धर्म ने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया। अपने मत को पुष्टि के लिए उन्होंने गीता के पदों के उद्धरणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म में साम्प्रादायिकता, संकीर्णता, धर्मांधता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है । इस प्रकार स्वामी जी ने इस महान आध्यात्मिक धर्म महासभा में वेदांत के विजय का शंखनाद किया। उन्होंने अमेरिका इंग्लैंड आदि देशों को भारतीय दर्शन के मौलिक सिद्धांत की जानकारी दी । यह विश्व के लिए एक नया संदेश था । इस कारण अंधकार में भटकते हुए मनुष्य को एक अभिनव ज्ञान का मार्ग प्रशस्त हुआ ।
स्वामी जी ने अपने भाषण में अमेरिकी लोगों को हिंदुओं के बारे में कहा कि हिंदू तुम्हें कभी भी पापी नहीं कहते। तुम सभी अमृत की संतान हो। उन्होंने कहा कि इस पृथ्वी पर ‘पाप’ नाम की कोई चीज नहीं है।। यदि कोई पाप है तो वह है मनुष्य को पापी कहना। तुम सर्वशक्तिमान आत्मा ही शुद्ध मुक्त महान है। उठो, जागो और स्वंय को प्रकट करने की चेष्टा करो” (डॉ. सत्येंद्रनाथ मजुमदार, विवेकानंद चरित्र, पृष्ठ- 110)
उनको इस मनोवैज्ञानिक व्याख्यान का चुम्बकीय प्रभाव पूरे अमेरिका पर पड़ा और अमेरिकावासी उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो गये । अमेरिकन राष्ट्र विवेकानंद की प्रशंसा से मुखरित हो उठा और हर अमेरिकावासी उनके सानिध्य के लिए उत्सुक हो उठा । न्यूयार्क से प्रकाशित हेराल्ड अखबार ने इस अवसर पर लिखा कि शिकागो धर्मसभा में विवेकानंद ही सर्वश्रेष्ठव्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म सभा में इस प्रकार के समुन्नत राष्ट्र भारत वर्ष में हमारे धर्म प्रचारकों को भेजना मूर्खता मात्र है”। इस संदर्भ में वास्टन इवनिंग ट्रेंसलिस्ट में लिखा था, “वह वास्तव में एक महान आदमी है, उदार, सरल, ईमानदार, और हमारे अधिकांश विद्वानों की तुलना में अधिक ज्ञानी।”
स्वामी विवेकानंद ने धर्मसम्मत संसद में अपनी बातचीत के वाकपटुता और वेदांतिक ज्ञान से भरपूर भाषणों के माध्यम से अमेरिकी लोगों को भारत के प्रति प्रेम की ओर आकर्षित किया। उन्होंने यह सोचने के लिए उन्हें मजबूर किया कि भारत भी हमारे जैसा ही एक देश है, जहाँ हमारे समान मानव निवास करते हैं और उनका धर्म, रीति-रिवाज और ईश्वर भी हमारे समान हैं।। 150 वर्षों से ईसाइ धर्म प्रचारक हिंदुत्व की जो निंदा फैला रहे थे उस पर रोक लगा दी और सारा पश्चिमी लोक स्वामी के मुख से हिंदुत्व का आख्यान सुन कर गद-गद हो रहा है । तब हिंदू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव को महसूस करने लगे ।
जब भारतीय ने देखा कि यूरोप और अमेरिका भी हिंदू धर्म की महत्ता को समझने लगे, तब उन्हें भी इसकी महत्ता का अनुभव हुआ। ऐसे में, हिंदुत्व को व्यक्त करने के लिए, जो ताकत के रूप में अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म, और यूरोपीय बुद्धिवाद के साथ उत्पन्न हुआ था, उसका तोड़ स्वामी विवेकानंद के विशाल ज्ञान और उसके हिमालय जैसे व्यक्तित्व से हुआ। धर्म सभा पर अब अपना विचार प्रकट करते हुए सिस्टर निवेदिता लिखती है कि ” विश्वधर्म सभा के समक्ष स्वामी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया तो विषय था, हिंदुओं का धार्मिक विचार किंतु जब उसका अंत किया तब हिंदु धर्म की सृष्टि हो चुकी थी” ।
धर्म सभा के विज्ञान विभाग के अध्यक्ष मिस्टर मैरीन ने इस भाषण के बाद लिखा कि धर्म संसद पर एवं सामान्य तौर पर अमेरिकी जनता पर जितनी प्रभाव हिंदूधर्म का पड़ा उतना अन्य किसी धर्म का नहीं हुआ । हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट प्रतिनिधि थे स्वामी विवेकानंद जी जो वास्तवमें धर्म संसद में निसंदेह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावी व्यक्ति थे, सभी अवसरों पर, अन्य किसी ईसाई वक्ता की अपेक्षा अधिक सम्मान एवं सराहना मिली । ईसाई ने भी उनके संबंध में यह कहा कि यह मनुष्यों में राजा हैं।
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विवेकानंद से गहरे प्रभावित डॉ. एनी वेसेंट ने लिखा है कि, “एक प्रभावी व्यक्तित्व पीले एवं नारंगी वस्त्रों में सुशोभित, शिकागो के बोझिल परिवेश में भारत को सूर्य की तरह चमकने वाला सिंह सा मस्तक, अंतभेदी आँखे, संवेदशील ओज, फुर्तिली और अप्रत्याशित गति …. स्वामी विवेकानंद की छाप, कुछ इसी तरह भी मुझ पर पड़ी। लोग उन्हें योद्धा सन्यासी कहतेहैं और वे कुछ गलत नहीं कहते, क्योंकि उनकी पहली छाप सन्यासी की अपेक्षा योद्धा की अधिक थी। उनके जाति में अपने देश एवं जाति का अभिमान कूट-कूट कर भरा था। भारत का यह दूत, उसकायह उसे लज्जित होने देने वाला नहीं था । वह अपनी मातृभूमि का संदेश लेकर आया,उसके नाम पर बोला और इस संदेश वाहक ने अपनी शाही भूमि की गरिमा का स्मरण किया, जहाँ से वह आया था। उसकी वाणी से मुग्ध हो विशाल जन समुदाय उसके शब्दों पर कान लगाये रखता है कि कहीं एक भी अक्षर न छूट जाय। एक भी लय भूल न जाए। एक व्यक्ति उस दिन बोल उठा, और हम उस देश की जनता के लिए मिशनरी भेजते है। उचित तो यह होगा कि वे हमारे पास अपनी मिशनरी भेजे ।
विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार बिल ड्यूरेंट लिखते हैं कि स्वामी जी वर्ल्ड फेयर के मौके पर आयोजित धर्मों के सभा में उपस्थित हुए और अपने महिमामंडित व्यक्तित्व, सभी धर्मों के एकता में अपनेसंदेश एवं मानव से वही ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ उपासना है, ऐसा अपनी सरल नैतिकता के द्वारा सभी को वशीभूत कर लिया। कट्टर पादरियों ने पाया कि वे लोग एक ही-धर्म का सम्मान कर रहे है। भारत लौटकर अपने देशवाशियों के सम्मुख विवेकानंद ने ऐसे शक्ति सम्पन्न धर्म का उपदेश दिया जैसा वैदिक काल से लेकर अभी तक किसी ने उन्हें नहीं दिया था । जनसाधरण उनके भाव को किस प्रकार ग्रहण करेगा इसकी परवाह नहीं करते थे । जो सम्प्रदाय उनके विरोधी थे, वे बाद में उनके सहयोगी और प्रचारक बन गए। इंग्लैंड में भी उनके समर्थक और प्रचारक बन गए। उनका व्यक्तित्व इंग्लैंड में भी गहरा प्रभाव डाला। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि पूर्वी और पश्चिमी ज्ञान का संगम न होने पर मानव कल्याण संभव नहीं हो सकता। कि जब तक प्राच्य प्रवधि पाश्चात – ज्ञान का संगम नहींहोगा तब तक मानव कल्याण संभव नहीं दिखना । वे वेदांतऔर विज्ञान का बीच समंवय चाहते थे । स्वामी जी जानते थे, जब तक हिंदू धर्म कि बौद्धिक एवं वैज्ञानिक पद्धति प्रस्तुत नहीं की जायगी तब तक वह पाश्चात जगत को स्वीकार नहीं हो सकती है। इसी उद्देश्य हेतु उन्होंने अपने पाश्चात शिष्यों को भारत भेजा और भारतीय शिष्यों को पाश्चात भेजा। 1897 में भारत लौटने पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। धीरे-धीरे हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण और उन्नयन उनके विशेष योगदान की सर्वत्र चर्चा होने लगी। हिंदू धर्म के महान आचार्य के रूप में उनका स्वागत होने लगा। उन्होंने अपने संघ के माध्यम से वेदांत की शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप देने लगे । उनका अद्वैत संघ सांस्कृतिक उन्नयन एवं राष्ट्रीय पुनर्जागरण के कार्य में लगी थी । स्वामी विवेकानंद जी की देश की यही सबसे बड़ी देन है । स्वामी जी ने डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकास वाद का गहरा अध्ययन किया था उनका स्पष्ट मान्यता था कि डार्विन का विकास वाद ठीक होने पर भी उसके निष्कर्ष अंतिम नहीं है । वे मानते थे की संघर्ष और प्रतिद्वंद्ता बहुधा जीव की पूर्णता में रुकावट बन जाती है। शिक्षा और उन्नति का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं को हटाना है। इनके हट जाने पर मूल ब्रह्म भाव स्वयं प्रकाशित हो जाता है । आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में जितनी बाधायें आती है उन्हें शिक्षा, दीक्षा, ध्यान, धारणा के द्वारा दूर किया जा सकता है। स्वामी अद्वैत वादी थे और उन पर शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का उनके ऊपर गहरा प्रभाव था । स्वामी जी विश्व के सभी धर्मों और दर्शनों को अद्वैत वाद की ओर झुका मानते थे अपने इस समंवयकारी दृष्टिकोण के कारण वे पूर्ण रूप से अद्वैतवादी माने जाते है ।
स्वामी जी का उद्देश्य था मानवता को सामान्य होकर विशेष रूप से आधुनिक भारतीय मानव को कर्म के साथ संदेश देना। उनका संदेश था, “उठो साहसी बनो, वीर्यवान बनो। सभी उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लो।”। यह याद रखो की तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे ही अंदर विद्यमान है अतएव इस शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने हाथों अपनाभविष्य गढ़ डालो । स्वामी मनुष्य को श्रेष्ठतम अवस्था तक पहुँचाने के लिए आश्रम व्यवस्था को उच्चतम बताते हैं। समस्त मानव जाति का और समस्त धर्मों का धर्म – लक्ष्य एक ही है, और वह है भगवान से पूर्ण मिलन। इसलिए वे कहते थे कि हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर है, और उसके चिंतन में ही प्रेम ही मानव जीवन का सर्वोच्च एक मात्र प्रयोजन है।
स्वामी जी के विचार में, पतित से पतित व्यक्ति के सुधार की पूरी संभावना है। तुम बाधाओं को हटा दो, तो ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रकट होगा। हमारा राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है। वर्तमान समय में तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम देश के एक भाग से दूसरे भाग में जाओ और गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाओ की आलस्य से बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। उन्हें यथार्थ अवस्था का परिचय कराओ और कहो भाइयों सब कोई उठो जागो। अब और कितना सोओगे !
जाओ, उन्हें उनकी स्थिति में सुधार करने की सलाह दो, और शास्त्रों की सरलता से समझाकर उच्च सत्त्वों का ज्ञान प्रदान करो, ताकि वे उसे समझ सकें और उनके मन में यह विचार स्थिर हो सके। कि उनका भी धर्म पर समान अधिकार है।
स्वामी जी कहते हैं कि सदियों से ऊँची वर्ग के लोगों ने उनकी सभी शक्तियों को नष्ट कर दिया है। वे स्त्रियों को बड़ी सम्मान के साथ देखते थे। वे प्रत्येक को माँ,बहन के रूप में पूजते थे। उन्होंने उन्हें गुलामी से छुटकारा दिलाया, परदे से बाहर किया, सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की प्रेरणा दी तथा उनके शिक्षा ग्रहण करने पर बहुत जोर दिया। वे कहते थे कि उन्नतशील राष्ट्रों ने स्त्रियों को समुचित सम्मान देकर ही महानता प्राप्त की है। जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं करते वे कभी बड़े नहीं हो सकते, न ही हो पाये और न कभी बड़े हो पायेंगे । वे स्त्रियों को लौकिक और त्याग की शिक्षा देकर सीता बनाने का प्रयास करना चाहते थे ताकि वे अपना स्वयं का संरक्षण कर सकें। स्वामी विवेकानंद दलितों और गरीबों के दर्शन से बहुत दुखी थे। उन्होंने अपने देशवासियों और अन्य मिशनरियों को प्रेरित किया ताकि उनका समर्थन करें और सहायता प्रदान करें। । ” आओ हम में से प्रत्येक व्यक्ति दिन और रात उन करोड़ों पद दलित भारतीयों के लिए प्रार्थना करे जो गरीब, पुरोहितों के छल और नाना अत्याचारों द्वारा जकड़े हुए हैं उन्हीं के लिए दिन रात प्रार्थना करो ।
वे हिंदू धर्म को विश्व धर्म मानते थे । इसका एक कारण यह है कि हिंदूधर्म में विभिन्न मतों,संप्रदायों और साधना पद्धतियों के लिए समान आदर भाव है। विश्वधर्म सभा में उन्होंने इस संदर्भ में कहा था कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सर्वभौमिकता, दोनों की शिक्षा दी ।हम सभी धर्मों का सच्चाई को स्वीकार करते हैं, न कि केवल सर्वधर्म सहिष्णुता में। उन्होंने वेदांतिक शिक्षा का प्रसार करके रूढ़िवादी धारणाओं को समाप्त किया, और सभी धार्मिक विचारों को तर्क की कसौटी पर तौला और हिंदू धर्म को वैज्ञानिक एवं तर्क युक्त सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ा किया। वे वैक्तिकता एवं समाजिकता दोनों के समर्थक थे ।
स्वामी जी धर्म को शिक्षा की आत्मा मानते थे। उनकी दृष्टि में धर्म एक साधना है, एक अनुभूति है, आत्मा से साक्षात्कार है। पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है, वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है । बुद्ध व्यक्तिको उस सर्वोच्च्य स्तर पर नहीं पहुँचा सकती जिस पर हृदयउसे पहुँचाता है। शिक्षा के माध्यम से स्वामी जी व्यक्ति के ऐसे गुणों का विकास चाहते थे, जिससे व्यक्ति आदर्श, चरित्रवान, बलवान तथा आत्मनिर्भर हो सके। इसलिए वे चहते थे की व्यक्ति उच्च स्तर पर कर्म योग, भक्ति योग, राज योग तथा ज्ञानयोग की विद्या सीखे |
स्वामी जी धर्म को शिक्षा की आत्मा मानते थे। उनकी दृष्टि में धर्म एक साधना है, एक अनुभूति है, आत्मा से साक्षात्कार है। पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है, वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है। बुद्ध व्यक्तिको उस सर्वोच्च्य स्तर पर नहीं पहुँचा सकती जिस पर हृदयउसे पहुँचाता है। शिक्षा के माध्यम से स्वामी जी व्यक्ति के ऐसे गुणों का विकास चाहते थे, जिससे व्यक्ति आदर्श, चरित्रवान, बलवान तथा आत्मनिर्भर हो सके। इसलिए वे चहते थे की व्यक्ति उच्च स्तर पर कर्म योग, भक्ति योग, राज योग तथा ज्ञानयोग की विद्या सीखे ।
स्वामी विवेकानंद जी को भारत की अखण्डता के लिए एक सामान्य भारतीय भाषा की आवश्यकता का अवलोकन था, और उन्होंने इस दिशा में सभी बच्चों को अंतर-प्रादेशिक संचार के लिए एक सार्वभौमिक भाषा सिखाने को प्रोत्साहित किया
।सामन्य ज्ञान के लिए वे मातृभाषा को सबसे शक्तिशाली वाहन मानते थे। आरम्भिक शिक्षा के माध्यम के रूप में उन्होंने मातृभाषा के अध्ययन पर जोर दिया। इसलिए वे कहते हैं: “लोगों की बोलचाल की भाषा में उन विचारों की शिक्षा देनी होगी । जनसाधारण को उनकी निजी भाषा में शिक्षा दो। उनके सामने विचारों को रखो। वे जानकारी प्राप्त कर लेंगे पर और भी कुछ आवश्यक होगा। उन्हें संस्कृति दो। जब तक तुम उन्हें संस्कृति न दोगे तब तक उनकी उन्नत दशा कोई स्थायी रूप प्राप्त नहीं कर सकती।
स्वामी जी भारतीय नवजागरण की दृष्टि भी हैं और द्रश्टा भी वे शिक्षा में आध्यात्मिकता के साथ विज्ञान का समंवय चाहते थे। वे देश के नागरिकों को प्रयोगिक एवं तकनिकी शिक्षा देना चाहते थे । इसके साथ-साथ भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि के साथ कला की भी शिक्षा देना चाहते थे । मानव विकास के लिए वे सम्पूर्ण व्यक्तित्व का समविकास वे आवश्यक मानते थे। वे हमेशा यह कहते थे कि व्यक्ति के ग्रहण शक्ति के अनुरूप शिक्षा होनी चाहिए। कोई भी पद्धति ऐसी नहीं है जिसमें व्यक्ति की विशेषता का नास हो उसे वो विनासक मानते थे। बच्चों को शिक्षा देते समय निषेधात्मक नहीं होना चाहिए और लगातार उनको पढ़ने के लिए दबाव नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इससे उनका विकास रुकता है। यदि आप उन्हें हतोत्साहित करेगे तो उनके विकास में बाधा होगी। हमेशा बच्चे को पढ़ाते समय उसे उत्त्साहित करने की जरूरत होती है। इसीलिए आवश्यक है कि विद्यार्थीयों की आवश्यकता के अनुसार शिक्षण में परिवर्तन होना चाहिए। उसकी प्रवृत्तियों के अनुसार मार्ग दिखाना चाहिए। हर विषय पढ़ाने के लिए कुछ विधियाँ एवं प्रविधियाँ होती हैं ।
मन को नियंत्रित करने के लिए 8 अवस्थाओं की बात उन्होंने की है। ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन- प्रत्यक्ष अनुभव, अनुमान तथा आगम की उपयोगिता वो स्वीकार करते हैं। उन्होने शिक्षण की 15 विधिओं की चर्चा की है जो निम्न हैं- 1. व्याख्यान विधि, 2. उपदेश विधि, 3. अंत:करणीय प्रकाश विधि, 4. प्रयोगात्मक विधि, 5. पत्राचार विधि, 6. आध्यत्मिक विधि, 7. ज्ञान विधि, 8. मौन विधि, 9. साक्षात्कार विधि, 10. प्रश्नोत्तर विधि, 11. तर्क विचार-विमर्श और विश्लेषण विधि, 12. दृष्टांत विधी, 13. कथा-वार्ता
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