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दशरथ माँझी – भारत के “माउंटेन मैन” की जीवनी – 2024

दशरथ माँझी

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दशरथ माँझी : परिचय, जन्म और उनका योगदान

दशरथ माँझी : खेत में काम करनेवाले एक मुसहर मजदूर ने बाईस वर्षों तक अकेले लगातार गहलौर पहाड़ को छेनी – हथौड़ी से काटकर अपने इलाके का निर्बाध रास्ता निकालकर मनुष्य-प्रेम का पहला महल बनाया। इस तरह, दुनिया में आज तक पहली बार एक सामान्य आदमी ने सामान्य आदमी की अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई। भारतीय पृष्ठभूमि में एक सामान्य आदमी अपने जीवनकाल में ही दंतकथा और मिथक हो गया।

उसी दिवंगत तारे का नाम है – दशरथ माँझी । पुरुष और पहाड़ दूर से दिखाई पड़ते हैं । यह मुहावरा है । दशरथ पुरुष और पहाड़ दोनों एक साथ हुए । उनका नाम ही हो गया ‘पर्वत- पुरुष’। पर्वत से भी ऊँचा वही पुरुष दुनिया को दिखलाई पड़ रहा है अब। इससे बेहतरीन जिंदगी का दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता है आम आदमी का । सृजन की उत्कंठा से प्रेम और जन – सुविधा का नया रास्ता खोलकर दशरथ माँझी अमर हो गए। हम किसी को बहुमुखी प्रतिभा के लिए जानते हैं। दशरथ माँझी में कोई प्रतिभा नहीं थी, पर वे इतिहास के चेतन शिक्षक बन गए। उन्होंने अभिनय नहीं किया, जीवन की मुख्य भूमिका निभाई। उन्होंने किस्मत नहीं बनाई, न उनके पास किसी तरह का साधन था। बिना साधन के उन्होंने अपनी सामान्यता के दर्द से सामान्य आदमी का अभूतपूर्व इतिहास रच देने का पहला काम किया। उनके हाथों में महान् बनने की कोई लकीर नहीं थी। वे बिना युद्ध के अर्जुन जैसा ‘परम वीर चक्र’ बन गए। यह कोई फन नहीं था। दुनिया में सीधे जाने के उपयोग की भूमिका थी। उन्होंने जनता के लिए कसम खाई, ‘हकीकत के जन’ बन गए।

अपूर्व हिमालयन कथा है दशरथ माँझी की। अनंत जीवन की धारावाहिका के ‘पुअर मेंस हीरो’ हैं। इक्कीसवीं सदी की शुरू होनेवाली इतिहास-धारा के एकमात्र दशरथ माँझी। उन्होंने मानवता के साहस की पटकथा लिख दी – पैराणिक प्रोमेथियम और भगीरथ की श्रृंखला में, एक स्वर में । यही उनकी अथोक, अद्दोर गाथा है

बिहार के गया जिले में मोहड़ा प्रखंड के गहलौर गाँव में 14 जनवरी, 1929 को जनमे दशरथ माँझी । कुछ लोग उनका जन्म भूकंप के समय का सन् 1934 भी बताते हैं । 17 अगस्त, 2007 को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में कैंसर के कारण उनका निधन हो गया। अपने लक्ष्यों का अर्जुन-संधान करनेवाला महारथी इतिहास में कर्मठता का प्रतीक प्रतिष्ठित हो गया। स्वयं बिहार के मुख्यमंत्री ने उनके शव की अगवानी की। राजकीय समारोह से उनका दाह-संस्कार किया गया।

दशरथ माँझी एक सामान्य व्यक्ति थे। प्रबुद्ध व्यक्ति  विचारधारा बन सकता है । बना है इतिहास में। सामान्य आदमी प्रतीक बन गए तो उसी को सीधे इतिहास कहते हैं। शब्द और विचारधाराएँ समयबद्ध होती हैं । प्रतीक स्मृति का चिर आलोक बन जाते हैं सदा के लिए । दशरथ माँझी मानवीय प्रतिबद्धता का प्रतीक संदेश बन गए, आमजन की संकल्पित अटलता का संदेश। ध्रुव तारे की तरह स्थिर हो गए जिंदगी के आकाश में। एक नया ध्रुव तारा। ऐसा दशरथ माँझी अब पार्थिव नहीं रहा । वह हमारे समय में विराटता का एक नुक्ता, चिरस्थायी बिंब बन गया।

सन् 1966 में बड़ी सामान्य सी बात हुई उनके जीवन में। वह खेतों में मजदूरी का काम करनेवाला एक अदना मनुष्य था । कौन नोटिस लेता है इस दुनिया में एक अदने मनुष्य का । खेतों में काम करते उसकी औरत फगुनी रोज दिन का भोजन-पानी लेकर दोपहर में आती थी। उस दिन भी आई चिलचिलाती धूप में। ठोकर लगी पहाड़ पार करते और वह गिर पड़ी। माँझी को पहाड़ पार कर जीवन संगिनी को 90 कि.मी. वजीरगंज अस्पताल ले जाने में देरी हुई। रास्ते में वह चल बसी । गरीबी के जीवन में रोज कहीं-न-कहीं ऐसी सामान्य बात होती है। इतिहास में इसकी कहीं गवाही नहीं होती, कोई चर्चा नहीं।

मजदूर दशरथ के भीतर का अखाड़िया प्रेमी जाग गया। यह शाहजहाँ का प्रेम नहीं था, एक समय के भारतीय बादशाह का । यह दशरथ माँझी का प्रेम था। उसके पास कोई साधन नहीं था कि वह अपनी पत्नी की स्मृति में दुनिया का अजूबा ‘फगुनी – महल’ बना देता। शाहजहाँ की पत्नी मुमताज की तर्ज पर दुनिया का आश्चर्य ओस की बूँद जैसा एक ताजमहल। आँखों में डबडबा जानेवाला एक शाश्वत, जीवित प्रेम – प्रतीक। इसने आम आदमी का विश्व में पहला मनुष्य प्रेम – महल बनाया अपने अकेले के श्रम से। बाद में लोग भी दुर्दमनीय दशरथ कोसमझ गए, सहयोग किया। एक छोटी घटना, एक छोटा प्यार मिशन बन गया ।

दशरथ माँझी 30 फीट चौड़ा रास्ता गहलौर पहाड़ में प्रशस्त करने के लिए भिड़ गया। यह संकल्प अकल्पनीय था; लेकिन दशरथ का प्रांजल पत्नी – प्रेम कि मनुष्य उतरने में आगे कोई ठोकर खाकर नहीं गिरे – मरे । एक आदमी में विरल रचनात्मकता के उदय की कहानी यहीं से शुरू होती है।

दशरथ अपनी अदम्य साधना में छेनी – हथौड़ा लेकर लग गए। लोग जो गुजरते, उनके सनकीपन को देखकर दंग होते गए। पूरे क्षेत्र में दशरथ की अदम्यता की कथा फैल गई। लोगों ने व्यंग्य किया कि ‘दिल्ली बहुत दूर’ है। अपनी संकल्प – शक्ति से इस मुहावरे को भी झूठ साबित करने के लिए इसी बीच निकल पड़े। पहले दिल्ली की रेलवे लाइन का रास्ता पकड़ लिया। दो महीने में चैत पूर्णिमा के दिन पैदल दिल्ली पहुँच गए। ऐसी कथा भारतीय स्मृति में पहले केवल जीवन-मर्म के उस्ताद कवि गालिब की ही थी । गालिब का वजीफा बंद हो गया तो वे उस समय की राजधानी दिल्ली से कलकत्ता पैदल पहुँच गए थे फरियाद लेकर। विजयी हुए। दूसरे विजयी हुए दशरथ की दिल्ली दूर नहीं है। एक अदना आदमी भी दिल्ली फतह कर सकता है। ऐसा लक्ष्य था सुभाष चंद्र बोस का। वे इंफाल की पहाड़ियों से दिल्ली पर आमजन की आजादी का झंडा फहराने के लिए चल पड़े थे। उनके पास समर्पित भारतीय जवानों की सेना थी। दशरथ अकेले थे। आम आदमी के लिए दिल्ली की दूरी खत्म कर दी । रास्ते में हर स्टेशन से अपनी पैदल पहुँच और मनसा को दर्ज कराते गए। बीमार पड़े, पर हिम्मत नहीं हारी। बीमारी को पौधों को पीसकर दूर कर लेते। पहाड़ के आदमी को पौधों का ज्ञान था । ये सारी प्रतीक गाथाएँ भी दशरथ से जुड़ गईं। उनकी ये गाथाएँ प्रेरणा का स्रोत बनकर अब पाठ्यक्रम में शामिल हैं।

अपनी बकरी बेचकर छेनी – हथौड़ी ली थी । विश्वकर्मा का ध्यान करता एक नाटे कद का काला मुसहर अपने लक्ष्य में सफल हुआ। केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर उन्होंने अकेले ही 360 फीट लंबे, 30 फीट चौड़े और 25 फीट ऊँचे पहाड़ को काटकर सड़क बना दी । उसने वजीरगंज, मोहड़ा और अतरी प्रखंड के वासियों के लिए आमजन का सुलभ रास्ता उपलब्ध करा दिया। सीधे मार्ग से वजीरगंज की 55 कि.मी. की घुमावदार दूरी 15 कि.मी. हो गई। अनपढ़ एवं गँवार दशरथ माँझी ‘पर्वत – पुरुष’ के विभूषण का हकदार हो गया, इतिहास का एक पन्ना बन गया। इस अनूठे प्रेम-पर्व की चर्चाएँ दुनिया भर में दर्ज होने लगीं। सन् 1999 में उनका नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स’ में शामिल हो गया। दशरथ की इकलौती अतुलनीय क्रांति ने उनको नक्षत्र बना दिया । गरीब का पहला ‘श्रमिक ताजमहल’ और ‘मनुष्य महल’ दोनों बना दिया दशरथ माँझी ने, व्यंग्य को यथार्थ में बदलकर ।

पहाड़ को तोड़ने का कार्य 33 वर्ष की उम्र में शुरू किया था । पूरी जवानी तोड़ने में बिता दी । भीतर के खुशमिजाज इनसान थे । हँसोड़पन से आर्थिक तंगी को झेलते रहे । संता में कबीर पंथ में

दीक्षित हुए। अनपढ़ दशरथ चिर स्मरणीय हो गए।

शुरू हुआ दशरथ माँझी का सम्मान । भारतीय स्टेट बैंक ने मजाक किया उनको कंप्यूटर देकर। ई-टी.वी. वालों ने उन्हें 18 सितंबर, 2006 को ‘बिहारी हो तो ऐसा’ का खिताब दिया । यह खिताब अब हर बिहारी की चुनौती है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी कुरसी पर बिठाकर उनका सम्मान किया। एक दिन के भिश्ती राजा की तरह यह भी प्रतीक बना। सम्मान का सिलसिला चलता गया । दूरदर्शन ने उन्हें ‘धरती के लाल’ की संज्ञा दी। उन पर वृत्तचित्र बना।

इस महान् कर्मवीर की माँ थीं— पचिया देवी। पिता मँगरू माँझी। वे माता-पिता धन्य थे। पुत्र से उनका नाम रोशन हुआ। पुत्र हो तो ऐसा। अभी धड़ाधड़ सरकार माँझी के क्षेत्र में पक्की सड़कें बना रही है। दशरथ माँझी ने पिछड़े बिहार को अग्रणी बिहार बनाने का स्वप्न प्रदान कर दिया। आज गहलौर पहाड़ी दशरथ के प्रेम स्मारक की तरह खड़ी है। ताजमहल से भी ऊँचा, भाव-सुंदर, मनुष्य – प्रेम की गाथा लेकर । प्रणाम है शत- शत दशरथ माँझी के तीर्थ जैसे मानव प्रेम-महल और साहस की पराकाष्ठा को । नीतीश कुमारजी ने उनका मुहावरा बिहार- निर्माण के लिए ग्रहण किया।

सर्वेश्वर दयाल के शब्दों में, माँझी के जीवन का एक ही काव्य-पाठ हो सकता है – “दुःख तुमको क्या तोड़ेगा, तुम दुःख को तोड़ दो। बस, अपनी आँखें औरों के सपनों से जोड़ दो।”

कबीरपंथी होकर दशरथ माँझी नए कबीर की भूमिका में भी रहे। केवल घोंसला बहाकर ले जानेवाले समुद्र को बूँद-बूँद सोखकर कहानी की चिड़िया ही नहीं रहे। उनका कहना था कि ईश्वर में विश्वास का अर्थ मेहनत की पूजा है। हम अंध-श्रद्धा के शिकार हैं। फाकाकशी करनेवाले आदमी की मौत के बाद मृत्यु – भोज की धारणा का उन्होंने विरोध किया। आज से सामान्य आदमी में उद्दाम जिजीविषा का नया मिथक हैं दशरथ माँझी।  पहाड़ उन्हें कभी ऊँचा नहीं लगा। पहाड़ से ऊँचा मनुष्य है। यही उनका घोषणा-पत्र है, जिसे उनके कर्म ने पूरी मानवता के नाम जारी किया है। उन्होंने पत्नी – प्रेम का ताजमहल नहीं बनाया, मनुष्य का पहला ‘प्रेम-महल’ बनाया ।



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